भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तलवार और सलीब / गुलाम नबी ‘ख़याल’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेमुश्किल आया था यहाँ
आते ही ले गए वे उसे
गर्म शरीर में ठोंकी ठंड़ी कील
‘‘क्या आप जनते हैं कत्लगाहों की राह ?
नभ से कबूतर ग़ायब हैं
फिर से ज़रा ढूँढ़ो दर्द के उस
चारागर को’’

‘‘हे-वह आया था सिर्फ़ तुम्हारी
ज़िन्दगी लेकर
हाथ बाँधे उसे
ले गए आज
मुज़रिम नाम दे दिया उसे’’
ज़रा उस दर्द के चारासाज़ को
ढूँढ़िए
पलकों से निकाल लूँ
उसके पग के काँटे
रो पडूँ। हे मेरे मज़लूम
आओ तो।
यह आकाश अकेला।
यह धरा अकेली।
उदास।
सफे़द लबादे पर रक्तिम-गुलाब
गंधमय
सिर पर सुशोभित
कंटक ताज।
धुंध का मौसम
किन्तु तारा वह ज्वलंत।
हे दिल! हे बुज़दिल! हे गाफ़िल
मेरे एकाकीपन में मुझे तुम
क्या बँधाओगे ढाढ़स
इस सीने में तुम्हारी
धुकधकी आज
अत्यंत भारी।
देखो सलीबों की पंक्तियाँ
ऊँचाइयों पर
चीन्हो यदि चीन्ह सको
यह गंध रक्त की।
फिर से इस तिमिर में
चिंगारियाँ बनेंगी अलाव
नूर के तारक बार-बार
प्रज्वलित होंगे मगर
ख़ून पुकार उठेगा
फिर तिमिर का रंग
हो उठेगा लाल
जीवन प्रभाव खिल उठेगा
चाक-चाक।।