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तलाशो मुक्ति को / संतोष श्रीवास्तव

ओ रात्रि
अंतिम प्रहर में
तुम्हारी उदास सूरत
कह जाती है
ढलती सांझ की
विरह व्यथा

कुछ प्रतिबंधित स्वर
विषाद, पीड़ा ,कातरता
से विचलित अनुगूंजें
आकाश से उतर आती हैं
दर्द भरी स्मृतियाँ
 
चुपके से बिखरती है चांदनी
प्रकृति के अलसाये सौंदर्य पर
चांद का कर्ज़ पटाने
 
ओ रात्रि!
इस फ़रेब जाल से
मुक्ति को तलाशो
तलाशो उन
प्रतिबंधित स्वरों के
उद्गम को
तलाशो स्त्री में छुपे
सदियों के आहत मर्म को
या फिर समेट लो
अपने शबनमी अश्रुकण
कल फिर काम आने के लिए