भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तलाश / कैफ़ी आज़मी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये बुझी सी शाम ये सहमी हुई परछाइयाँ
ख़ून-ए-दिल भी इस फ़ज़ा में रंग भर सकता नहीं
आ उतर आ काँपते होंटों पे ऐ मायूस आह
सक़्फ़-ए-ज़िन्दाँ पर कोई पर्वाज़ कर सकता नहीं
झिलमिलाए मेरी पलकों पे मह-ओ-ख़ुर भी तो क्या?
इस अन्धेरे घर में इक तारा उतर सकता नहीं

लूट ली ज़ुल्मत ने रू-ए-हिन्द की ताबिन्दगी
रात के काँधे पे सर रख कर सितारे सो गए
वो भयानक आँधियाँ, वो अबतरी, वो ख़लफ़शार
कारवाँ बे-राह हो निकला, मुसाफ़िर खो गए
हैं इसी ऐवान-ए-बे-दर में यक़ीनन रहनुमा
आ के क्यूँ दीवार तक नक़्श-ए-क़दम गुम हो गए

देख ऐ जोश-ए-अमल वो सक़्फ़ ये दीवार है
एक रौज़न खोल देना भी कोई दुश्वार है