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तलास रोटी के / सुरेशचन्द्र द्विवेदी
Kavita Kosh से
पूरा के पूरा दुपहरिया,
जरत-तपत,
हम अपना ऊपर गुजार देनीं
भूखल-पियासल
रोटी के तलास में
अउरी जरत जेठ के घाम में
मालिक के मुक्का-लात
गारी-फजीहत सहेनीं,
पापी पेट के खातिर,
जिनगी के जहर
रोज-रोज पीयेनीं,
अंजुरी भर पानी के साथ-साथ
गटा-गट
हमनीं का बहू-बेटी के
इज्जत के-
साथ जब ऊ खेलेला
तब अफसोस में
उफ् तक ना कहि सकेनो जा
एही पापी पेट खातिर,
लेकिन गरीब के पेट
जइसे सुरंग हो जाला,
काहे कि ओकर हिस्सा
मालिक सेंध लगा के ले लेला
अउरू दुख के मारल गरीब,
जब रात होला
तब पेट पर पट्टी बाँध के सूतेला,
अउरी तब ओकरा कान में
दूध के बरतनन के
झुनझुनाहट खनखनाहट
के अलावा
कवनो आवाज ना सुनाई देला,
जब मूसरो बेचारी ओकरा घर में
हफतन तक दाना ना पावेले।