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तल्ख़ियाँ सारी फ़ज़ा में घोलकर / कुमार विनोद

तल्ख़ियाँ, सारी फ़ज़ा में घोलकर
क्या मिलेगा बात सच्ची बोलकर

गुम हुए ख़ुशियों के मौसम इन दिनों
इसलिए जब भी हँसो, दिल खोलकर

भेद खुल जाएँगे जब आकाश के
देख तो अपने परों को तोलकर

बात करते हो उसूलों की मियाँ
भाव रद्दी के बिकें सब तोलकर

शौक़ बिकने का अगर इतना ही है
ज़िस्म क्या फिर रुह का भी मोलकर