तवर्घावासी / अशूरा एतवेबी / राजेश चन्द्र
काश वे लेकर जाएँ अपने मवेशियों को भी अपने साथ,
काश वे ले जाएँ अपने साथ अपनी आग भी ।
तवर्घा के शरणार्थी, मर्द और औरतें,
उनकी स्मृतियाँ चमक उठती हैं
मृत जनरल की छाती पर ।
मेरा रास्ता नहीं जाता तुम्हारी तरफ़
तुम्हारा रास्ता मेरी तरफ़ नहीं आता ।
मैं तीन गर्म आलू हूँ
तुम एक भट्ठी हो जिसमें खौलते हैं शब्द ।
उनके घरों के भीतर
एक कमरा है आँसुओं के लिए
और खिड़की महज एक खिड़की है,
लेकिन मरनेवालों के हाथ
वज़नी हो चुके हैं सवालों से ।
कौए फेंक आते हैं हमारी रूहों को
एक गहरे तम-शून्य विवर में ।
पानी से रहित एक कुआँ वैसा ही है
जैसे कोई चर्खी बिना डोर की ।
यों अधिकारी शायद ही दस्तक देते हैं
उनके दरवाज़ों पर
उनकी आँखें इस तरह लालायित हैं
खेत देखने को
जैसे कोई नेत्रहीन भटक गया हो रात में
यह कथा कहना वैसा ही है
जैसे तुम्हारी जेब से किसी नदी को ख़ीच निकालना ।
किसका इन्तज़ार कर रहे हो तुम ?
डाक बस आने को है !
अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र