भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तवा / कुमार कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी अजीब बात है-
गर्मा-गर्म रोटियाँ खाते
हम एक बार भी नहीं सोचते
तवे की तकलीफ़ के बारे में
खा रहे हैं वर्षों से चुपचाप
तवे की तकलीफ़
निगल रहे हैं उसके अंग-अंग की पीड़ा

जल-जल कर, तप-तप कर
हो गया है तवा काला-कलूटा संथाली मज़दूर

शायद दादी ने समझ ली थी बहुत पहले
तवे की तकलीफ़
उतारती थी उसे बहुत आराम से
अन्तिम रोटी के साथ चूल्हे पर से
दादी समझती थी तवे की रोने की आवाज़
वह जानती थी-
उसे भी लगती है भूख
उसे भी होता है दर्द
तभी तो रख देती थी अन्तिम रोटी तवे के नाम
जान चुकी थी वह-
तवा बार-बार जल कर
लेगा जन्म बार-बार
अगले जन्म में बनेगा वह बिरसा मुंडा
तवा जलता हुआ तपता हुआ
काला रेगिस्तान है
गर्म-गर्म रोटी की ख़ूबसूरत खान है
जी रहा है वह इस उम्मीद पर
आएगा कोई एक दिन
ले जाएगा उसे मेरी तरह कविता के घर
लिखेगा उसके काले कंकाल पर
ख़ूबसूरत कविताएँ।