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तस्कीन-ए-अना / सुलेमान आरीब
Kavita Kosh से
जब कोई क़र्ज़ सदाक़त का चुकाने के लिए
ज़हर का दुर्द-ए-तह-ए-जाम भी पी लेता है
अपना सर हँस के कटा देता है
ज़िंदगी जब्र सही जब्र-ए-मुसलसल ही सही
सहता है
और इस जब्र का सौ रंग अता करता है
हर्फ़ का सौत का सूरत का फ़ुसूँ-कारी का
मैं उसे देख के चुपके से खिसक जाता हूँ
ये तो मैं ख़ुद हूँ वो अहमक़ जिस की
अपनी रूस्वाई में तस्कीन-ए-अना होती है