तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई / मजाज़ लखनवी
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई,
वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए।
इस सई-ए-करम को क्या कहिए,
बहला भी गए तड़पा भी गए।।
हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके,
कुछ कह न सके, कुछ सुन न सके ।
याँ हम ने ज़बाँ ही खोली थी,
वाँ आँख झुकी शरमा भी गए।।
आशुफ़्तगी-ए-वहशत की क़सम,
हैरत की क़सम हसरत की क़सम।
अब आप कहें कुछ या न कहें,
हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए।।
रूदाद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त उन से,
हम क्या कहते क्यूँकर कहते।
इक हर्फ़ न निकला होंटों से,
और आँख में आँसू आ भी गए।।
अरबाब-ए-जुनूँ पर फ़ुर्क़त में,
अब क्या कहिए क्या-क्या गुज़री।
आए थे सवाद-ए-उल्फ़त में,
कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए।।
ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है,
क्यूँ फ़िक्र है तुझ को ऐ साक़ी।
महफ़िल तो तिरी सूनी न हुई,
कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए।।
इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में,
इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में ।
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे,
हम पी भी गए छलका भी गए।।