मैं जो
मैं नहीं हूँ
किसी शो-विंडों में
एक पुतले की तरह
ख़ामोश खड़ी हूँ !
कुछ रिश्तों
कुछ रिवायतों से मोहताज !
बाहर से ख़ामोश हूँ
अन्दर ज़लज़ला है
तूफ़ान है
अस्तित्व और अनस्तित्व के
इस पार, उस पार खड़ा एक सवाल है-
कि मैं जो मैं हूँ
मैं क्या हूँ ?
पु्स्तकालय से समाधि तक
इस सच को तलाशते हुए
सोचती हूँ
मैं जिस्म हूँ
कि जान हूँ !
मेज़बान हूँ
कि मेहमान हूँ !!
ज़िन्दगी
मौत
रूह
और मोक्ष
शब्दों के अर्थ तलाशती
सोचती हूँ
आख़िर मैं कौन हूँ !
तस्वीरों की जून में पड़कर
ख़ामोश ज़िन्दगी को व्यतीत करते
कई बार
अहसास होता है
कि मैं केवल
हारे-थके रिश्तों की
मर्यादा हूँ !!
या शायद
मैं कुछ भी नहीं
न रूह, न जिस्म
न कोई मर्यादा-
केवल एक
जीता जागता धड़कता
दिल ही हूँ !
तभी तो जब
रिश्ते टूटने का अहसास होता है
तो निगल जाता है
मेरा दिल
मेरा विवेक !!
मैं जो मैं नहीं हूँ
अपने आप को
रिश्तों की दीवार पर
टिका रखा है !
मैं जो मैं हूँ
इन तस्वीरों के
तिड़के शीशों में से निकल कर
परछाइयों की जून पड़ गई हूँ !!