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तस्वीर जूते नहीं उतारती / कविता भट्ट

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वह देहरी के बीचो-बीच जूते उतार
भीतर आता था,
जूतों से सबको ठोकर मिलती
पत्नी कहती रही- कभी तो सही जगह रखो जूते
खाने के बाद धोकर हाथ-
वह पर्दे से ही पोंछता था।
बहुत से रजिस्टर भर दिए थे
लिख-लिखकर उसने
उस बड़े विद्वान ज्योतिषी की
कोई बात झूठी नहीं हुई कभी
लोग फटे हुए से पैर छू लेते थे उसके सम्मान से
उसने न कभी दीपक जलाया
न ही कोई पुस्तक लिखी।
बिना फीस जन्मपत्रियों को बाँचता रहा।
पत्नी रोज कहती रही
कि तुमने कौन महल बना लिये?
पत्नी सन्न है, सन्नाटा पसरा है।
वह इन गुण-अवगुणों के साथ ही चला गया।
पता नहीं बच्चे खुश हैं या दुःखी
बस इतना है कि अब घर में झगड़ा नहीं होता।
दूर तक चुप्पी है, जो टूटती नहीं अब।
कोने की रैक से पुस्तकें चुपचाप झाँक रही हैं
उसकी पेन में अब कोई रिफिल नहीं डालता।
चश्मा शायद अब थकान उतार रहा है।
ज्योतिष पर उसने जो शोध किए
वे रजिस्टर में ही दम तोड़ चुके हैं।
दीवार पर टँगी हुई उसकी फोटो
मुस्कुरा रही है- लेकिन यह मुस्कुराहट
असली है या नकली पता नहीं
क्योंकि तस्वीर जूते नहीं उतारती,
हाथ नहीं पोंछती, जन्मपत्री नहीं बाँचती,
न लिखती है , न पेन चलाती है, न चश्मा पहनती है।
उससे दीपक न जलाने की शिकायत भी खत्म!