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तहरा आसन तर के माटी में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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तहरा आसन तर के माटी में
हम लोटात रहेब, लोटाय द।
तहरा चरनन के धूरी से
हम धूसर होत रहेब, होत रहे द।
तहरा से अलग होके
हमरा मान ना चाहीं।
अपना से बेलगाव मत
दूर मत हटावऽ
नियरे रहे द
हमरा इहे सम्मान चाहीं।
एहँगँई तूं हमरा
हरदम याद रहबऽ
एहँगँई तहरा के
जनम-जनम ले भूलेब न।
हमरा के अपना लगे
टाँग के ले गइला से
आ पहुँचा ध के
खींच लेला से
हमार अनादर होखे
त होखे द।
तहरा चरनन के धूरी से
हम धूसर होत रहेब
होत रहे द।
हम तहरा यात्री दल में
सबसे पाछे रहेब
हमरा के तूँ,
सबसे नीचे जगह दीहऽ
हम दूरे-दूर रहेब
हमरा के तूं सबसे अंते में बइठहऽ
तहरा प्रसाद खातिर
कतना लोग धाई
हमरा त कुछुओ ना चाहीं।
बस खड़ा रहेब,
खाली तहरा के देखत रहेब।
सबसे अंत में
सभका ले लेला पर
जे बाँच जाई
सेही हमरा के दे दीहऽ
बाँचले-खुचल से
हमार काम चल जाई।
तहरा चरनन का धूरी से
हम धूसरित होत रहेब
होत रहे द।