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तहरा के देवता जान / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

तहरा के देवता जान के
दूरे-दूर ठढ़ रहिले
आपन जान के आदर ना दे पाईं।
पिता जान के चरनन में शीश झुकाइले
मित्र जान के दूनू हाथ धर ना पाईं।
अपना अति सहज प्रेम वश
जब तूं हमार आपन बनके
राह में आके ठाढ़ हो जालऽ
तबहूँ हम तहरा के करेजा से लगाके
आपन साथी कहके तहरा के अपना ना पाईं।
मीत मान के तहरा संगे चले के साहसे ना होखे।
प्रभु! तूभें त हमर भई-बभेंधु लेख
आपन भाई-बभेंधु हउवऽ
तबहूँ तहरा पास सहजता से
हम जा ना पाईं।
आपन धन अपना भाई-बभेंधु मभेंे बँट के
तहार संगी काहे न बन पाईं?
सब सुख-दुख के छोड़ के
तहरा सनमुख जाके
ठाढ़ काहे ना हो पाईं?
क्लांतिहीन कामन में प्राण सउँप के
प्रान सागर में कूद के
हम गोता काहे ना लगाईं?