तहवीले-अनासिर में आवारा हवा भी है / रमेश तन्हा
तहवीले-अनासिर में आवारा हवा भी है
मा'बद की फ़ज़ा जैसे, मामूर-ए-दुआ भी है।
अपने ही तजस्सुस में, क्या जाने हैं कब से हम
खोए हुए रहने में, गो एक मज़ा भी है।
पा पा के जहां खोया, खो खो के है पाया भी
इरफान यूँ हस्ती कक, कुछ हम को हुआ भी है।
तलवारों की धारों पर चलते तो रहे हैं हम
होने कि न होने का, यूँ राज़ खुला भी है।
करनों की मुसाफत से, बरहम है वजूद अपना
गो साथ हमारे ये, कुछ गाम चला भी है।
नाहक़ के मफ़ादों के ख्वाबों को भी सहलाना
फ़ितरत ही नहीं अपनी, फिर अपनी अना भी है।
ख़ामोश तकल्लुम ने, गिरहें तो नहीं खोलीं
आशाओं का इक झुरमुट हमराह चला भी है।
ये देखना है कैसे, दोनों को बचाओगे
नरगे में हवाओं के तुम भी ही दिया भी है।
क्यों गीत न लहरायें, होंठों पे फज़ाओं के
है नूर का तड़का भी, और बादे-सबा भी है।
हासिल के खिलौने से बहलाओगे जी कब तक
जब हद्दे-मकानी तक, बे अंत ख़ला भी है।
ख़ामोश तकल्लुम के अपने ही किनाए हैं
कुछ तुमने कहा भी है कुछ हम ने सुना भी है।
क़तरा भी , समंदर भी, ज़र्रा भी बयाबां भी
मरकज़ भी है हल्क़ा भी, शामिल भी जुदा भी है।
इंसान ही सब कुछ है धरती से ख़लाओं तक
अदना भी है, आला भी, बंदा भी ख़ुदा भी है।
क्या कहिये, है क्या 'तन्हा' बस इतना समझ लीजे
तोला भी है माशा भी, अच्छा भी, बुरा भी है।