भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तहार गीत गाके / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तहार गीत गाके
हम कब बाहर अइलीं
हमरा तनिको याद नइखे।
बाकिर ई बात,
आज के ना ह, आज के ना ह।
साफ भुला गइल बानीं
कि कब चललीं?
तहरा खातिर चललीं
तहरा लगे से चललीं?
बाकिर ई बात आज के ना ह, आज के ना ह।
झरना जइसे बहते जाला
चलते जाला, दउरल जाला;
परबत से बाहर होके
गोदी से निकल जाला;
जाने ना झरना बाकिर
केकरा खातिर दउरल जाला
बहते जाला, बढ़ते जाला, चलते जाता
तेंहींगईं धावत अइलीं
चलते अइलीं, बढ़ते अइलीं,
जीवनधारा बनके हम
बहत अइलीं, बहते अइलीं;
बाकिर ई बात
आज के ना ह आज के ना ह।
ना जानीं जे कतना नावँ धके
तहरा के पुकरलीं, बोलवलीं।
ना जानीं जे कतना तरह से
तहरा चित्र उरेहलीं, बनवलीं।
बाकिर ना लागल तहार पता
ना मिलल तहार ठेकाना।
तबो ना जानीं जे कवना आनंद से
हम बढ़ते गइलीं चलते गइलीं।
बाकिर ई बात
आज के ना ह, आज के नाह
फूल जइसे विहान खातिर
जाग के रात बिता देला;
ओइसहीं तहार आस लगवले,
मिलन खातिर चाह जगवले,
कतना रजनी जाग बितवली;
हृदय खोल के आस लगवलीं।
बाकिर ई बात,
आज के ना ह, आज के ना ह!