तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में / आलम खुर्शीद
तह-ब-तह<ref>एक के नीचे एक, परत दर परत</ref> है राज़ कोई आब<ref>पानी</ref> की तहवील<ref>अमानत, खज़ाना</ref> में
ख़ामुशी यूँ ही नहीं रहती है गहरी झील में
मैं ने बचपन में अधूरा ख़्वाब देखा था कोई
आज तक मसरूफ़<ref>मशगूल, व्यस्त</ref> हूँ उस ख़्वाब की तकमील<ref>पूरा होने, पूर्ति</ref> में
हर घड़ी अहकाम जारी करता रहता है ये दिल
हाथ बांधे मैं खड़ा हूँ हुक्म की तामील<ref>आज्ञा का पालन</ref> में
कब मिरी मर्ज़ी से कोई काम होता है तमाम
हर घड़ी रहता हूँ मैं क्यूँ बेसबब<ref>बिना कारण</ref> ताजील<ref>जल्दी, शीघ्रता</ref> में
मांगती है अब मोहब्बत अपने होने का सुबूत
और मैं जाता नहीं इज़हार<ref>प्रकट करना</ref> की तफ़्सील<ref>विस्तृत वर्णन, ब्योरा</ref> में
मुद्दआ तेरा समझ लेता हूँ तेरी चाल से
तू परेशां है अबस<ref>व्यर्थ, नाहक</ref> अल्फ़ाज़ की तावील<ref>व्याख्या</ref> में
अपनी ख़ातिर भी तो 'आलम' चीज़ रखनी थी कोई
अब कहाँ कुछ भी बचा है तेरी इस ज़म्बील<ref>थैली, विशेषतः वो थैली जिसमें फ़कीर लोग भीख में मिली हुई चीज़ें रखते हैं</ref> में