ताँत यह कितना गझिन / जयप्रकाश त्रिपाठी

लौटना कितना कठिन है,
क्या पता !
दिन, अभी कुछ और दिन हैं,
क्या पता !

ठीक से पन्ने समय के पढ़ न पाया,
घर बसाने के लिए क्यों उजड़ आया,
हर सुबह से शाम तक मरता, सिहरता,
वक्त की गठरी लिए सिर, पाँव भरता,
तन्तु टूटे हुए, जो मैंने बुने हैं,
रक्त में भीगे हुए, किसने तुने हैं,
ताँत यह कितना गझिन है,
क्या पता!

चाहकर भी मृत्यु का होना, न होना,
दृष्टियों का जागना, ऊँघना, न सोना,
तीक्ष्ण, शब्दातीत, हर क्षण बिलखता है,
कुछ असम्भव है, न होना चाहता है,
क्यों अकेले इस तरह सज-धज रहा है,
रिद्म में अपने अनवरत बज रहा है,
चुभ रहा किस धातु का विषबुझा पिन है,
क्या पता !

सख़्त पत्थर की तरह है, दोहरा है,
मैं जहाँ लिपटा हुआ हूँ, कोहरा है,
आ रहा इस वक्त को हँसना, न रोना,
इस तरह से आदमी का नग्न होना,
शब्दवत जो सहज है, पर बहुत तीखा,
जिसे लिखना आज तक मैंने न सीखा,
सुबह जैसा रात का बासी तुहिन है,
क्या पता !

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