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ताख़ / स्वप्निल श्रीवास्तव


पुराने ताख़ पर रखी हुई है

नई दियासलाई


अंधेरा होते ही इसे

खोजने लगते हैं हाथ


एक तीली लालटेन को

जलाती है

दूसरी रसोईघर की ढिबरी को

आलोकित करती है

तीसरी अलाव जलाने के

काम आती है


लेकिन वहाँ अंधेरा रहता है

जहाँ यह रखी हुई रहती है