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ताजगंज का रोज़ा (ताजमहल) / नज़ीर अकबराबादी

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यारो जो ताजगंज यहां आश्कार<ref>ज़ाहिर है</ref> है।
मशहूर इसका नाम ये शहरो दयार<ref>देश</ref> है।
खू़बी में सब तरह का इसे ऐतबार है।
रोज़ा जो उस मकान में दरिया किनार है।
नक्शे में अपने यह भी अज़ब खु़श निगार<ref>सुन्दर चित्रित</ref> है॥1॥

रूए<ref>पृथ्वी की सतह</ref> ज़मीं पे यूं तो मकां खूब हैं यहां।
पर इस मकां की खूबियां क्या-क्या करूं बयां।
संगे सफे़द<ref>सफेद पत्थर, संगमरमर</ref> से जो बना है क़मर निशां<ref>चांद जैसा</ref>।
ऐसा चमक रहा है तजल्ली<ref>आभा, प्रकाश</ref> से यह मकां।
जिससे बिल्लौर की भी चमक शर्मसार<ref>लज्जित, तिरस्कृत</ref> है॥2॥

गुंबद है इसका जोर बुलन्दी से बहरा मंद<ref>सौभाग्यशाली</ref>।
गिर्द इसके गुम्बियां भी चमकती हुई हैं चंद।
और वह कलस जो है सरे गुम्बद से सर बुलंद।
ऐसा हिलाल<ref>चांद</ref> उसमें सुनहरा है दिल पसंद।
हर माह जिसके ख़म<ref>टेढ़ेपन</ref> पै महे<ref>नया चांद</ref> नौ निसार है॥3॥

गुम्बद के नीचे और मकां हैं जो आसपास।
वह भी बरंगे सीम<ref>चांदी</ref> चमकते हैं खु़श असास<ref>सामान</ref>।
बरसों तक उसमें रहिये तो होवे न जी उदास।
आती है हर तरफ़ से गुले यासमन<ref>चमेली के फूल</ref> की बास।
होता है शाद उसमें जो करता गुज़ार है॥4॥

हैं बीच में मकां के वह दो मरक़दे<ref>क़ब्रें, समाधियां</ref> जो यां।
गिर्द उनके एक जाली मुहज्जिर है दुरफ़िशां<ref>लहराती हुई हिलता हुआ</ref>।
संगीन<ref>बड़े बड़े</ref> गुल<ref>फूल</ref> जो उसमें बनाये हैं तह निशां<ref>नीचे से</ref>।
पत्ती, कली, सुहाग रगो<ref>नस</ref> रंग है अयां<ref>प्रकट</ref>।
जो नक्श<ref>चित्र, उभरे हुए चित्र</ref> उसमें है वह जवाहर निगार<ref>प्रतिभा को दिखाने वाले</ref> है॥5॥

दीवारों पर हैं संग<ref>पत्थर, संगमरमर</ref> में नाजुक अ़जब निगार<ref>चित्र</ref>।
आईने भी लगे हैं मुजल्ला<ref>प्रकाशमान, रोशन</ref> हो ताब दार<ref>चमकदार</ref>।
दरवाजे़ पर लिखा खत तुग्रां<ref>दीवारों पर बेल-बूटे, तस्वीरें बनाने या लिखने की लिपि</ref> है तरफ़ाकार।
हर गोशे<ref>कोने</ref> पर खड़े हैं जो मीनार उसके चार।
चारों से तरफ़ा ओज<ref>टेढ़ा, वक्र</ref> की खू़बी दो चार है॥6॥

पहलू में एक बुर्ज बसी कहते हैं उसे।
आते नज़र हैं उससे मकां दूर दूर के।
मस्जिद ऐसी कि जिसकी सिफ़त<ref>प्रशंसा, तारीफ</ref> किससे हो सके।
फिर और भी मकां हैं इधर और उधर खड़े।
दरवाज़ए कलां भी बुलन्द उस्तवार<ref>दृढ़ मजबूत</ref> है॥7॥

जो सहन बाग़ का है वह ऐसा है दिलकुशा<ref>रमणीक</ref>।
आती है जिसमें गुलशने फ़िरदौस<ref>स्वर्ग के बाग़</ref> की हवा।
हर सू<ref>हर तरफ</ref> नसीम<ref>ठंडी हवा</ref> चलती है और हर तरफ़ हवा।
हिलती हैं डालियां सभी हर गुल है झूलता।
क्या क्या रविश-रविश<ref>बाग़ के अन्दर के पतले रास्ते</ref> पै हुजूमे<ref>बहार की भीड़</ref> बहार है॥8॥

सर्वो सही खड़े हैं करीने<ref>क्रम</ref> से नस्तरन<ref>सेवती के फूल</ref>।
कू-कू करे हैं कुमरियां<ref>प्रसिद्ध सफेद पक्षी</ref> होकर शकर शिकन<ref>मिष्टभाषी</ref>।
रावील सेवती से भरे हैं चमन-चमन।
गुलनार<ref>अनार के फूल</ref> लालओ<ref>पोस्त के फूल, एक लाल फूल</ref> गुलो नसरीनो नस्तरन।
फव्वारे छुट रहे हैं रवाँ जुए बार<ref>नहर, नहरें बह रही हैं</ref> है॥9॥

वह ताजदार शाहजहां साहिबे सरीर।
बनवाया है उन्होंने लगा सीमो-ज़र<ref>मालो दौलत</ref> कसीर<ref>अत्यधिक</ref>।
जो देखता है उसके यह होता है दिल पज़ीर<ref>दिल पसंद</ref>।
तारीफ़ इस मकां की मैं क्या-क्या करूं ”नज़ीर“।
इसकी सिफ़त<ref>प्रशंसा</ref> तो मुश्तहरे<ref>प्रसिद्ध</ref> रोज़गार<ref>ज़माना, इसकी प्रशंसा ज़माने में प्रसिद्ध है</ref>॥10॥

शब्दार्थ
<references/>