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ताज़गी उभर आई / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
सूखी-सी देह डाल कलियाई
जा! तेरी याद छू गई धाई ।
ठहरे जल को जैसे छू गया पवन
टोर-छोर बाँध गई ठंडी सिहरन
भीतर सोयी छाया अँगड़ाई ।
धीमे-धीमे बिहँसे पंखुरी नयन
महक गया भोले मन का बासीपन
होठों तक ताज़गी उभर आई ।