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ताज़गी की तलाश / शैलप्रिया
Kavita Kosh से
मौसम
बार-बार छलता है
हर बार
नया ताना-बाना बुनता है
पिछलग्गुओं की तरह
घिसे-पिटे शब्दों से
की जाती है बातों की मरम्मत
लेकिन कब तक
बैसाखियों के सहारे रणनीति
बनाई जा सकती है
अपनी आकाँक्षाओं की बलवती
क्रीड़ा-कौतुक में शामिल
तुम जियोगी इसी तरह
तुम्हारी चेतना छलती जाएगी हर बार
तुम नयापन ढूँढ़ते हुए
पुरातत्वों में शामिल
एक शव की तरह खोजती रहोगी नयापन