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ताज अपने वक़्त का रचते हैं हाथ / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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ताज अपने वक़्त का रचते हैं हाथ
क्या हुआ कि हर दफ़ा कटते हैं हाथ

ज़िन्दगी में रात कायम है अभी
पर मशालों की तरह जलते हैं हाथ

वक़्त को तरतीब देते हैं सदा
जब सलीक़े से कभी पड़ते हैं हाथ

गिड़गिड़ाने पर उतर जाता है वक़्त
हमने देखा तन के जब उठते हैं हाथ

हो चुका होता कभी का फ़ैसला
साज़िशें ख़ुद से मगर करते हैं हाथ