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ताड़ के हाथ पंखे / विनय सौरभ

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एक भीषण गर्मी के रोज
मैं ताड़ के हाथ पंखों के लिए
हाट में निकला

उस साप्ताहिक हाट में
कस्बाई जीवन के लायक सारे सामान थे
मैं कई सालों के बाद इन पंखों के लिए हाट में निकला था
मेरा कुर्ता भीग रहा था
हद थी, जो दुमका की सड़कों पर , कांख में दबाए इन पंखों के लिए आवाज़ें भरते , गली कूचों में भी अक्सरहा नज़र आते थे , नहीं दिखे

लगातार बिजली की कटौती वाले इस कस्बाई शहर में इस मौसम को कैसे झेल रहे हैं लोग
क्या उन्हें हवा नहीं चाहिए ?

मैं बे- बात झुंझला रहा था
अगर कोई मुझसे इस समय मुँह लगता तो यकीनन मैं उस की ऐसी तैसी कर डालता

               मुझे ताड़ के पंखे चाहिए ~~~
               पंखे चाहिए मुझे ताड़ के~~~

सुनिए, सुनिए, भाई साहब !
ताड़ के पंखे बेचती कोई स्त्री
कोई बच्चा दिखा आपको ?

हाट से निकलकर
मैं इस छोटे से शहर की जिस भी दुकान के सामने से गुजरा, वहां सामने टंगे दिखे प्लास्टिक के छोटे-छोटे हाथ पंखे

एक मारवाड़ी दुकानदार ने इन प्लास्टिक पंखों की जिस तरह से वकालत की, वह मुझे भयानक रूप से अश्लील लगी
मैं भीतर से चिल्लाया -
सालों ~~~
प्लास्टिक खाओगे एक दिन !
और थक कर हाँफने लगा

आह ! कितने समर्थ और अराजक तरीके से प्लास्टिक हमारे जीवन में आ गया देखते-देखते !

ताड़ के असंख्य पेड़ हैं हमारे इलाके में और कम आमदनी वाले तमाम शराबी !

क्या ताड़ के पेड़ इन्हीं के बदौलत बचे हैं ?

आपने गौर किया है ,
ताड़ के पंखे कितने हल्के होते हैं और कितने सस्ते !

हवा और पत्ता !
इस तरह से देखिए तो इन चीजों के प्रति एक रागात्मक भाव मन में पैदा होगा

मैंने तो बचपन में ताड़ के पंखों पर रंगों की नक्काशी देखी है, वह स्मृति अद्भुत है !

आज ताड़ के पंखों के लिए भटकने के अपने अनुभव से मैं हैरान हूं
एक भय की अनुभूति से भरा हूं कि मेरा यह प्यारा शहर मेरे सामने ही कितना बदल गया !

मेरे पूर्वजों ने जिन्होंने ताड़ के हजारों पेड़ लगाए
क्या सोचा होगा कभी
कि एक दिन उन्हीं का खून
इधर -उधर भटकेगा
वह भी ताड़ के पंखों के लिए !!
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