तात! आसान नहीं था / शर्मिष्ठा पाण्डेय
तात आसान नहीं था
ईश्वर होकर मानव रूप धरे
राम के लिए 'बाली' जैसे महायोद्धा से मल्ल /मुष्टि युद्ध
किन्तु ये तो पहले से तय की जा चुकी नियति थी
जिसने मनुष्य होना तय किया,विधान रचे
युद्ध रचे,विजय रची हाँ,
ईश ने स्वयं के लिए पराजय कभी नहीं रची
चाहे रूप कोई धरा हो
विभिन्न पटकथाएं रचीं,
पात्र रचे,
सुविधा-असुविधा नियत किये,
हास्य-रुदन धरे गए
सभी यथासमय क्रमवार घटे
लेकिन तात!!
तुम स्त्री का पक्ष भूल गए क्यूँ??
भूल गए 'रुमा' का सुग्रीव के लिए रुदन
भूल गए 'अलका' के साथ किये गए
समस्त पशुवत व्यवहार
और 'जानकी' ?
छोड़ो जानकी के विषय में बाद में बात करुँगी
हाँ,तो मैं कह रही थी
तुम्हें याद रहा तो केवल
पौरुष प्रदर्शन कर बाली का वध
और एक पुरुष यानी सुग्रीव को
'किष्किन्धा' का साम्राज्य देना
सोचती हूँ डूब मरुँ उसी 'पम्पा सरोवर'में
जिसके जल से तुमने किया सुग्रीव का राज्याभिषेक
सुग्रीव सहृदय थे, सद्पुरुष भी
किष्किन्धा में सम्मान था उनका
हाँ, बाली के भाई होने का सम्मान
जानते हो तात रुतबा उसका होता
जिसके हाथ सत्ता होती, बल होता
और सुग्रीव! वे तो राजप्रासाद के विराट स्तंभों में जड़े
एक विराट प्रस्तर मात्र थे
जो प्रासाद का वैभव तो बढ़ा सकता
लेकिन उसे निर्णय लेने का कार्य नहीं सौंपा गया
आप उस से टकराकर माथा फोड़ सकते
लेकिन माथे का मुकुट नहीं बना सकते
और तो और
तुम्हें तो याद रहा रावण भी
यह भी तो पूर्व नियत था ना
तुम्हें उसका वध करना ही था
फिर ,
तुमने अपनी ही स्त्री को बना डाला मध्यस्थ??
तुमने नियति में ये क्यूँ लिखा कि
रावण द्वारा
तुम्हारी पत्नी के हरण के पश्चात ही तुम उसका वध करोगे
क्यूँ तुम पुरुष युगयुगान्तर से स्त्री को
अपनी ढाल तलवार बनाते आये हो
क्यूँ तुम्हारी विजय,पराजय अहं ,सम्मान की तुष्टि के लिए
तुम्हें स्त्री का ही सहारा लेना पड़ता
यहाँ तक की तुम ईश्वर भी इस से अछूते नहीं
आखिर को तुम भी पुरुष ही ठहरे
माना कि तुमने सब कल्याण हेतु रचा
शान्ति हेतु रचा
परन्तु अशांति और अकल्याण भी तो तुमने ही रचे
लेकिन हर बार अपनी लक्ष्य सिद्धि हेतु
स्त्रियों का प्रयोग एवं उनकी दुर्दशा मुझे सालते हैं राम!!
तुम स्वयंभू थे
किसी और तरीके से भी कार्य सिद्धि कर सकते थे न
जाने दो
ये सब इसलिए लिख रही हूँ कि
पुनः किसी युग में जब आना तो
अपनी पिछली भूलें मत दोहराना
तुम्हारी की गयीं गलतियाँ तुम्हारे सब वंशज
आज भी छाती ठोक के कर रहे हैं
साथ ही तुम्हें दोष देना और तुम्हारा
जयघोष भी नहीं भूलते वे नहीं भूलते
"जय श्री राम" कहना और पुनः सीता हरण करना
जानते हो मैं भी स्त्री हूँ
इतिहास में किये गए स्त्रियों के प्रति
अन्याय मुझे कमजोर बनाते हैं
विरोध का स्वर बुलंद करती हूँ
ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
हमारे प्रति वर्तमान में किये जा रहे अन्यायों को समझ सकें
विरोध कर सकें
शायद ये भी क्रम चलता रहे
किसी युग में तो रुके ये सिलसिला
सुनो राम!!
मैं नास्तिक नहीं
मेरे संस्कारिक बीजों से बढ़े
आस्थावान वृक्ष की जड़ें मजबूत हैं
बस इन वृक्षों की शाखों पर
शाखामृग से लटके मेरे अधिकार
मुझे विद्रोह का फल खाने पर विवश करते
तुम तो सर्वज्ञ हो समझते हो ना सब
बस ईश्वर और पुरुष को एक में न मिलाना
अन्यथा बार-बार मारी जाती रहेंगी हम केवल हम स्त्रियाँ
क्षमा करना मैं ईश्वर से डरती हूँ
और तुम्हारी ही जाति के पुरुष से भी
क्षमा !!