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ताब-ए-नज़र से उन को परेशां किए हुए / 'मुशीर' झंझान्वी

ताब-ए-नज़र से उन को परेशां किए हुए
आईना-ए-जमाल को हैराँ किये हुए

जलते रहे चराग़ की सूरत तमाम उम्र
लेकिन फ़जा-ए-ग़म को फ़रोजाँ किये हुए

तेरी गली में जश्‍न-ए-बहाराँ है बे-ख़बर
आए हैं लोग दिल को गुलिस्ताँ किये हुए

साक़ी बस एक जाम-ए-सुकूँ चाहिए मुझे
हालात-ए-ज़िंदगी है परेशां किये हुए

हम भी शरीक-ए-जश्‍न-ए-बहाराँ हुए तो हैं
तार-ए-नज़र को सर्फ़-ए-गिरेबाँ किये हुए

गुज़रा हूँ ज़िंदगी की हर एक कशमकश से मैं
दिल को हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ किये हुए

पास-ए-वफ़ा ने ख़ुद ही गिरेबाँ को सी दिया
हम भी चले थे चाक-ए-गिरेबाँ किये हुए

दैर ओ हरम के लोग हमें आ के देख लें
हम हैं तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ किये हुए

बैठे हैं अजनबी की तरह हम भी ऐ ‘मुशीर’
ख़ुद को शरीक-ए-बज़्म-ए-हरीफाँ किये हुए