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तारक चुनरी / शशि पाधा
Kavita Kosh से
कौन जुलाहा
तारक चुनरी
बुनता सारी रात ?
किरणों से करता नक्काशी
बेल मोतिया टाँके
जूही-चंपा सजी पाँखुरी
मोल भाव न आँके
शरद चाँदनी जड़ी किनारी
घूँघरू जोड़े साथ
चतुर जुलाहा तारक चुनरी
बुनता सारी रात
आसमान में खुली पिटारी
बिखरी हीरक कणियाँ
चतुर जुलाहा चुन चुन जोड़े
मोती माणिक मणियाँ
रीझ-रीझ में बाँध दिए फिर
मन के मनके सात
मीत जुलाहा बड़े चाव से
बुनता सारी रात
दूर दिशा से तकता चंदा
मन ही मन ललचाए
कौन हाट में बिकती चुनरी
कैसे मोल चुकाए
सारी निधियाँ वारूँ, भेजूँ
धरती को सौगात |
कौन जुलाहा बुनता चुनरी
बैठा सारी रात
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