तारन्ता बाबू से कुछ सवाल / वीरेन डंगवाल
तोते क्यों पाले गए घरों में
कूड़ा डालने के काम में क्यों लाए गए कनस्तर
रद्दी वाले ही आख़िर क्यों बने हमारी आशा
बुरे दिनों में?
ज़रा सोचो,
अकसर वहीं क्यों जलाई गईं बत्तियाँ खूब
जहाँ उनकी सबसे कम ज़रूरत थी
जिन पर चलते सबसे कम मनुष्य
आख़िर क्यों वहीं सड़कें बनीं चौड़ी-चकली?
खुशबुएँ बनाने का उद्योग
आख़िर कैसे बन गया इतना भीमकाय
पसीना जबकि हो गया एक फटा हुआ उपेक्षित जूता
हमारे इस समय में
जबकि सबसे साबुत सच तब भी वही था।
इन नौजवानों से कैसे छीन लिया गया उनका धर्म
और क्यों न भर जाने दिया उन्होंने अपने दिमाग में
सड़ा हुआ जटा-जूट-घास-पात?
कहाँ चले आए ये गमले सुसज्जित कमरों के भीतर तक
प्रकृति की छटा छिटकाते
जबकि काटे जा रहे थे जंगल के जंगल
आदिवासियों को बेदखल करते हुए?
आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
सोचो तो तारन्ता बाबू और ज़रा बताओ तो
काहे हुए चले जाते हो ख़ामख़ाह
इतने निरुपाय?