तारीख़ों में क़ैद ज़िन्दगी / अर्पण कुमार
इन दिनों
मेरी उदास और हताश आँखें
उठ जाती हैं
कैलेण्डर की ओर
बार-बार
प्लास्टर-उखड़ी और मटमैली
हो चुकी दीवार पर
टँगा कैलेण्डर
क्या कुछ अन्दाज़
लगा पाता होगा
मेरी बेबसी और छटपटाहट का
तिथियों की गुहा-शृंखलाओं में
भटकते-फिरते
कभी खत्म न होनेवाले
मेरे इन्तज़ार का
कैलेण्डर भी कदाचित
फड़फड़ाकर रह
जाता होगा चुपचाप
अपने दर्जन भर पृष्ठों में
उलझा, बेबस
इस निर्रथक कोशिश में
कि आख़िर कैसे जल्दी से
ले आए वह
महीने की 30 या
फिर 31 तारीख़
जब मुझे मिल पाए
कुछ रुपए
मेरी पगार के
अत्यल्प ही सही
‘चटकल’ में
पटसन से भाँति-भाँति
की वस्तुएँ बनाता हूँ जूट की
मगर चटकल-मालिक
आखिर पगार देता ही है कितना
हम मज़दूरों को
मेरी ओर देखकर
कनखियों से
शामिल होकर मेरे दुःख में
समानुभूति दिखाता मुझसे
और अपने पृष्ठ-चित्रों से
मेरे मन-बहलाव की
विफल कोशिश करता
मेरे छोटे से कमरे की
पुरानी दीवार पर टँगा
वर्तमान वर्ष का
यह कैलेण्डर ही
एकमात्र ऐसा दृश्य-साधन है
जो मेरे ज़ेहन और
मेरे कमरे को
एक साथ
अपने तईं
(जितना ही सही)
नवीनता का
एहसास कराता है
मालिको !
कैलेण्डर
मगर
कोई जादूगर नहीं
जो अपनी
ख़ाली हथेली को
बन्द कर
कुछ देर
चन्द सिक्के बना दे
न उसकी जेब में
कोई ‘सरकार’ है
जो मेरे पसीने का
सही मोल तय कर सके
मगर फिर भी,
शाम को थका-मान्दा
घर आया मैं
मुमकिन है
कुछ देर के लिए
अपनी पत्नी या
अपने बच्चों की ओर
न देख पाऊँ
(निहारकर उनके चेहरे को
उनको अभाव की
ज़िन्दगी देने का दर्द
कुछ अधिक ही
सालता है मुझे)
मगर
देनदारियों के बोझ से
दबा मैं
पसीने में भीगे
अपने छीजे कपड़ों को
अपने शरीर से उतारते हुए
और निढाल होकर
गिरते हुए बिस्तर पर
(ज्यों कोई परकटा असहाय कबूतर)
मन ही मन
गुणा भाग करता
और हिसाब लगाता
अपनी वित्तीय सीमाओं का
जाने कितनी बार
देख चुका होता हूँ
कैलेण्डर को
इन पाँच-दस मिनटों में
इस बीच
पत्नी के हाथों दिया
पानी का गिलास
मेरी प्यास को
तृप्त कर देता है
मगर,
मेरे अन्दर की तपिश को
पानी की कोई धार
कितना कम कर सकती है
आखिरकार !
और फिर जल्द ही
मेरे होठों पर
मटमैली, सूखी पपड़ी
अपनी जगह
बना लेती है पूर्ववत
कैलेण्डर ही सच्चा गवाह है
मेरे अन्तहीन दर्द का
अनिद्रा और
सम्भावित किसी अनिष्ट से
चिन्तातुर मेरी
जागती रातों का
मगर जब
लेनदारों को अपने पैसे
समय पर नहीं मिलेंगे
तब क्या वे
मेरे साथ रात भर जागते
और फड़फड़ाते रहनेवाले
मेरे सहकक्ष
इस कैलेण्डर की गवाही को
स्वीकार करेंगे
कि मैंने कितनी ईमानदारी से
हिसाब-किताब लगाकर
तय-तिथि पर
अपनी देनदारी
चुकाने की
हरसम्भव कोशिश की थी,
बच्चों की सेहत से जुड़ी
कई अनिवार्य ज़रूरतों पर
कैंची भी चलाई थी
अनिच्छा से,
निर्ममतापूर्वक
मगर चन्द रुपयों को
महीने भर खींचकरा
किसी तरह घर चलाते हुए
देनदारी चुकाने की
मेरी जुगत की सीमा भी तो
अपनी जगह
कहीं-न-कहीं
मुझे बाँध ही देती है
कैलेण्डर !
दुनिया
तुम्हारी गवाही क्यों नहीं मानती !