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तारों के चिलमनों से कोई झांकता भी हो / बशीर बद्र
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तारों के चिलमनों से कोई झांकता भी हो
इस कायनात में कोई मंज़र नया भी हो
इतनी सियाह रात में किसको सदायें दूँ
ऐसा चिराग़ दे जो कभी बोलता भी हो
दरवेश कोई आये तो आराम से रहे
तेरे फ़क़ीर का घर इतना बड़ा भी हो
सारे पहाड़ काट के मैं मिलने आऊंगा
हाँ मेरे इन्तिज़ार में दरिया रुका भी हो
रंगों की क्या बहार है पत्थर के बाग़ में
लेकिन मेरी ज़मीं का इक हिस्सा भी हो
उसके लिए तो मैंने यहाँ तक दुआएं की
मेरी तरह से कोई उसे चाहता भी हो