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तार-तार कर डाला ज़ुल्म का निज़ाम आख़िर / कांतिमोहन 'सोज़'

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तार-तार कर डाला ज़ुल्म का निज़ाम<ref>व्यवस्था</ref> आख़िर ।
यूँ अयां<ref>उजागर</ref> किया हमने अपना नंगो-नाम<ref>रुतबा, मान-सम्मान</ref> आख़िर ।।

हमको दार<ref>फाँसी का तख़्ता</ref> तक लाना काम सबसे आसां था
किसलिए किया उसने इतना इन्तज़ाम आख़िर ।

बन्दोबस्त में तेरे गो शराब बहती थी
फिर भी तेरे शैदाई<ref>चाहनेवाले</ref> आए तिश्नाकाम<ref>प्यासे</ref> आख़िर ।

क्यूँ हमारे हाथों से खैंचना ज़रूरी था
लाख वो शिकस्ता<ref>टूटा-फूटा</ref> था था तो अपना जाम आख़िर ।

एक-एक नेमत को लाख-लाख ठुकराया
लेके माने दुनिया से हम भी इन्तकाम<ref>बदला</ref> आख़िर ।

मेरा कब ये दावा था मैं जहाँ का मरक़ज़<ref>केन्द्र बिन्दु</ref> हूँ
मुझपे रूक गई है क्यूँ गर्दिशे-मुदाम<ref>शाश्वत चक्र</ref> आख़िर।

एक ही थी शै ऐसी जिसका कोई अन्त न था
सोज़ अपनी ग़मख़ोरी<ref>चुप रह जाना</ref> आई अपने काम आख़िर ।।

शब्दार्थ
<references/>