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ताले... रास्ता देखते हैं / विवेक चतुर्वेदी

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चाबियों को याद करते हैं ताले
दरवाज़ों पर लटके हुए...
चाबियाँ घूम आती हैं
मोहल्ला, शहर या कभी-कभी पूरा देस
बीतता है दिन, हफ्ता, महीना या बरस
और ताले रास्ता देखते है।

कभी नहीं भी लौट पाती
कोई चाबी
वो जेब या बटुए के
चोर रास्तों से
निकल भागती है
रास्ते में गिर,
धूल में खो जाती है
या बस जाती है
अनजान जगहों पर।

तब कोई दूसरी चाबी
भेजी जाती है ताले के पास
उसी रूप की
पर ताले अपनी चाबी की
अस्ति (being) को पहचानते हैं

ताले धमकाए जाते हैं,
झिंझोड़े जाते हैं,
हुमसाए जाते हैं औजारों से,
वे मंजूर करते हैं मार खाना
दरकना फिर टूट जाना
पर दूसरी चाबी से नहीं खुलते।

लटके हुए तालों को कभी
बीत जाते हैं बरसों बरस
और वे पथरा जाते हैं
जब उनकी चाबी
आती है लौटकर
पहचान जाते हैं वे
खुलने के लिए भीतर से
कसमसाते हैं
पर नहीं खुल पाते,
फिर भीगते हैं बहुत देर
स्नेह की बूंदों में
और सहसा खुलते जाते हैं
उनके भीतरी किवाड़
चाबी रेंगती है उनकी देह में
और ताले खिलखिला उठते हैं।

ताले चाबियों के साथ
रहना चाहते हैं
वो हाथों से,
दरवाजे की कुंडी पकड़
लटके नहीं रहना चाहते
वे अकेलेपन और ऊब की दुनिया के बाहर
खुलना चाहते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले
वे रास्ता देखते हैं।