ताले / पूनम सूद
ताले अकसर फुला लेते हैं मुँह
देख अनजान चाबियाँ
हठीली भाभीयों-सी चाबियाँ
कहाँ हटती हैं छेड़खानी से
खुल जाता है ताले का दिल
किसी एक ताली के रास आने से
जैसे खुश हो जाता है प्रियतम
प्रयसी के पास आ जाने से
कुछ गलत चाबियों से भी
खुल जाती हैं अलमारियाँ
कुछ नाजायज़ रिश्ते बना कर
लूट ली जाती हैं जन्मों की पूँजियाँ
विज्ञान की तरक्की भी
कहाँ बचा पाती हैं ख़जाने
रोक पाते हैं भला कब पहरेदार
काल के मुख में जाती हुई जानें
ताले जाते हैं खुशी से खुल
अपने मन मेल खाती चाबी से
नहीं तो जाते हैं रुठ और
तोड़कर खोलना पड़ता है उन्हें
मेरे अकेले मकान के द्वार पर
लटका अकेला प्रौढ़ उम्र का ताला
अपनी हमउम्र ताली के स्पर्श आभास से ही
इतमिनान से जाता है खुल
ऐसा ही इतमिनान था मुझे
जब इस मकान में रहती थी वो
जिसके स्पर्श मात्र से
यह मकान बन गया था घर।
कितने उत्साह से इस द्वार पर लगाकर ताला
हम निकलते थे घूमने और
फिर हँसी खुशी खोल इस ताले को
घर में करते थे प्रवेश।
आज इस ताले को बंद करने में
मेरी अधेड़ उम्र आड़े नहीं आती
पर काँप जाती हैं उंगलियाँ
वापिस अपने मकान में आकर
खोलने में यही ताला
जहाँ दफ़न है अंधेरों में
ख़जाना तुम्हारे स्पर्श का।