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ता-हद्दे-नज़र रेत की बेचैन नदी है / ज्ञान प्रकाश विवेक

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ता-हद्दे-नज़र रेत की बेचैन नदी है
वो किसको बताए कि उसे प्यास लगी है

हर रोज़ कलैंडर की न तस्वीरें गिनाकर
जीना है तो जीने के लिए उम्र पड़ी है

मैं ख़ौफ़ज़दा हो के उसे ढूँढ रहा हूँ
कालीन पे जलती हुई इक सींक गिरी है

ऐ चोर चुरा ले तू कोई दूसरा हैंगर
इस पर मेरे माज़ी की फटी शर्ट टँगी है

क्या जाने उसे भी कोई बनवास मिला हो
घर लौट के जाने में जिसे उम्र लगी है

आई जो पलट कर तो उठा लाएगी तारे
इक लहर जो मिट्टी का दिया ले के गई है

रावण मेरे अन्दर का मरा है न मरेगा
ऐ रामचन्द्र ! तुझसे मेरी शर्त लगी है.