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तिघिरा की एक शाम (1) / महेन्द्र भटनागर

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तिघिरा के शान्त जल में
तुम्हारा गोरा मुखड़ा
रहस्य भरे
निर्निमेष मुझे देखता
तैर रहा है !
सुडौल मांसल गोरी बाँह उठा
अरुणिम करतल पर हिलती
चक्रोंवाली अंगुलियाँ
दूर तिघिरा के वक्षस्थल से
मुझे बुलातीं !

मैं —
जो तट पर।
देख रहा छबि
बाइनाक्युलर लगाये
वासना बोझिल आँखों पर !