देस के उत्तर में,
उत्तर के पूरब में
मिर्ज़ापुर ज़िले के
अनेक छोटे गाँवों मे
हर सुबह
दो लाख नन्हें अब्दुल
सूरज के साथ-साथ उठ जाते हैं।
और
गूँजता रहता है दिन भर
दोपहर
की धूप में
उन हथकरघों पर
राग देस
देस राग
इसी तरह
सूरज के साथ-साथ
साँझ ढलते ही
अंधी दीवारों के
अंधियारे कोनों में
छिप जाते हैं
दो लाख कबिरे सूरज
सात बजे से सात बजे तक
कुल्लू उस्ताद
जो ख़ुद कालीन बुनता था
बच्चों पर निगरानी रखता है
आँख में घिरते अँधेपन से बेबस
जब कभी
नन्हा अब्दुल
काग़ज़ पर बना डिज़ाईन
कालीन पर उतारते हुए
ग़लत गाँठ बुनता है
काना कल्लू
उसे बाँस की छड़ी से धुनता है
बारह घण्टॉं की
इस उनींदी यात्रा में
अब्दुल रोटी खा सकता है
कालीन की राजकुमारी का
गीत गा सकता है
लघुशंका जा सकता है
पीठ भी खुजला सकता है।
कल सुबह कालीनों की नई खेप
विदेश जाएगी
इसलिये, आज शाम ढले भी
नन्हा अब्दुल
हर तैयार कालीन पर
एक-एक पर्चा टाँक रहा है
जिस पर साफ सुन्दर अक्षरों में छपा है :
केवल बालिगों के श्रम से निर्मित ।