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तिनका / नवीन जोशी 'नवेंदु'

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छूने से पहले
समझ लो इतना
मैं सरल-नाज़ुक
खाली ऐसा-वैसा
दाँत से फँसा निकालने
कान को खुजलाने
अथवा कौऐ (बेकार की चीज़ों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसा
नहीं हूँ, बिल्कुल नहीं हूँ ।

मैं सीढ़ी बन कर
(एक पौराणिक मान्यता के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुँचा सकता हूँ ।
सूण्ड में घुस कर
हाथी को भी मार सकता हूँ ।

जो कान
सच नहीं सुनते-
उन्हें फोड़ सकता हूँ ।
जो आँखें
सबको बराबर नहीं देखतीं
उन्हें खोंच सकता हूँ ।
दो दंत-पंक्तियाँ
अच्छी बातें नहीं बोलतीं
उन्हें लहूलुहान कर सकता हूँ ।

फिर तुम क्या हो ?
मेरे / सींक के
तोड़कर दो हिस्से नहीं कर सकते ।
और अगर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊँगा तो
फिर क्या ?

लड़ोगे मुझ से ?
आओ कर लो दो-दो हाथ
पर कह देता हूँ इतना
मैं सरल-नाजुक
नहीं.....
मैं हूं सींक / तिनका ।

मूल कुमाउनी कविता

सिणुंक

ठौक लगूंण है पैली
समझि लियो इतुक
मिं सितिल-पितिल
खालि उस-यस
दाड़ खचोरणीं,
कान खजूणीं,
कौ भड्यूणीं क्यड़ जस
नैं....कत्तई नैं ।

मिं सिढ़ि बंणि
तुमा्र पुरखन कें
सरग पुजै सकूं,
सूंड में फैटि बेर
हा्थि कें लै फरकै सकूं,

जो कान
सांचि न सुंणन-
फोड़ि सकूं,
जो आंख
बरोबर न द्यखन्-
खोचि सकूं,
जो दाड़
भलि बात त बुलान-
ल्वयै सकूं ।

फिरि तुमि कि छा ?

म्या्र/सिंणुका्क
टोड़ि बेर न करि सकना द्वि !
हौर मिं
गढ़व जै बंणि जूंलौ...
फिरि कि ?

लड़ला मिं हुं ?
आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हात
पर कै द्यूं इतुक
मिं सितिल-पितिल
नैं.....
मिं छुं सिणुंक ।