भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तिनके गिर रहे हैं मेज़ पर / संजय चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
रुके हुए पंखे पर कोई घोंसला बना रहा है
हड़बड़ा के कोई स्विच दबाएगा
गिर पड़ेंगी कुछ चीज़ें ज़मीन पर
कोई अंडे ख़रीद कर लाएगा बाज़ार से
और सारे कमरे में फैल जाएगी
आमलेट की ख़ुशबू