भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तिनकों की बिसात / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
अधरों में फूल लिये
आँखों में मोती,
जीवन भर उम्र रही
दूरियाँ सँजोती।
कभी नहीं यों हँसे
कि खुशियों के हो लेते
इस तरह नहीं मिले
कि अपने को खो देते
दोपहरी हिरणों को
क्यों न नदी होती!
धार-बीच पत्ते पर
गिरी बूँद
सागर के वक्ष से टिकी
बेसुध आँख मूँद
पल में जो हुई
सौ जनम में क्या होती?
उजड़ गए घोसले
उड़े उदास
दो नन्हें पंख और एक-
अंतहीन प्यास
कौन सुने तिनकों की
क्या बिसात होती!