भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तिरा रूख़ देख कर जल जाए जल में / 'सिराज' औरंगाबादी
Kavita Kosh से
तिरा रूख़ देख कर जल जाए जल में
कहाँ ये रंग ये ख़ूबी कँवल में
हुआ वीराँ नगर मेरी ख़िरद का
जुनूँ की सूबे-दारी के अमल में
कमर बाँधे अगर आशिक़-कुशी पर
करे क़त्ल-ए-दो-आलम एक पल में
अजब उस यूसुफ़-ए-मिस्री के हैं लब
नहीं हरगिज़ वो शीरीनी असल में
जिगर के दाग़ सीं फूले है लाला
तमाशा देख आ दिल के महल में
हुआ शेर-ए-सिराज अज़-बस-के रंगीं
लताफ़त गुल की है हर यक ग़ज़ल में