भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तिरा रूख़ देख कर जल जाए जल में / 'सिराज' औरंगाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तिरा रूख़ देख कर जल जाए जल में
कहाँ ये रंग ये ख़ूबी कँवल में

हुआ वीराँ नगर मेरी ख़िरद का
जुनूँ की सूबे-दारी के अमल में

कमर बाँधे अगर आशिक़-कुशी पर
करे क़त्ल-ए-दो-आलम एक पल में

अजब उस यूसुफ़-ए-मिस्री के हैं लब
नहीं हरगिज़ वो शीरीनी असल में

जिगर के दाग़ सीं फूले है लाला
तमाशा देख आ दिल के महल में

हुआ शेर-ए-सिराज अज़-बस-के रंगीं
लताफ़त गुल की है हर यक ग़ज़ल में