भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तिरे ख़याल का शोला थमा थमा सा था / मज़हर इमाम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तिरे ख़याल का शोला थमा थमा सा था
तमाम शहर-ए-तमन्ना बुझा बुझा सा था

न जाने मौसम-ए-तलवार किस तरह गुज़रा
मिरे लहू का शजर तो झुका झुका सा था

हमें भी नींद ने थपकी दी सो गए तुम भी
तमाम हादसा-ए-शब सुना सुना सा था

बला-ए-शाम के साए थे और वादी-ए-दिल
अगरचे सुब्ह का चेहरा धुला धुला सा था

चराग़ मंज़िल-ए-दिल पर जला के क्या करते
वफ़ा का क़ाफ़िला कब से रूका सा था

वो नाम जिस के लिए ज़िंदगी गँवाई गई
न जाने क्या था मगर कुछ भला भला सा था