भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तिरे सुलूक का ग़म सुब्ह-ओ-शाम क्या करते / रईस सिद्दीक़ी
Kavita Kosh से
तिरे सुलूक का ग़म सुब्ह-ओ-शाम क्या करते
ज़रा सी बात पे जीना हराम क्या करते
कि बे-अदब का भला एहतिराम क्या करते
जो नास्तिक था उसे राम-राम क्या करते
वो कोई ‘मीर’ हो ‘ग़ालिब’ हों या ‘अनीस’-ओ-‘दबीर’
सुख़न-वरी से बड़ा कोई काम क्या करते
न नींद आँखों में बाक़ी न इंतिज़ार रहा
ये हाल था तो कोई नेक काम क्या करते
मिज़ाज में था तकब्बुर तो हरकतों में ग़ुरूर
फिर ऐसे शख़्स को हम भी सलाम क्या करते
‘रईस’ ख़ू-ए-वफ़ा ने हमें रूलाया है
फिर इस चलन को भला हम भी आम क्या करते