तिलक / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
मेरा भाई भले ही मुझे
चाहे जितना डाँटे फटकारे-
जम के द्वार चढ़ाकर कुंडी,
मैं भाई के माथे पर लगाऊँगा टीका।
भाई के साथ रहा है मेरा दुराव
और भाई के साथ ही लगाव-
उसके नाप किया करता मैं,
शाही किमख़ाब तैयार।
जंगल से चुनी मैंने लकड़ियाँ
भाई गया है लड़ाई के मैदान
उसकी कमर में अपने हाथों
बाँधी मैंने तलवार।
भाई के हाथ लपलपा उठती है
रह-रहकर तलवार,
देख रहा मैं,
काँप उठा है अन्धकार का सिंहासन।
विगत स्मृतियाँ सहेज रखीं मैंने सीने में,
आँखों के कोटर में सपने सँजो रखे-
पता नहीं, कब लौटे भाई
नींद से बोझिल हैं अब आँखें
मैंने जंगल से चबीने फूल,
देख रखी है कन्या
हाथ जलाकर पकाया खाना
कि भाई को खिलाऊँगा।
कहीं टूट रही हैं ज़ंजीरें
आवाज़ आ रही झन-झन,
उड़ रहे पताके और घूम रहे
रथ के चक्के बन्न...बन्न।
भाई लाया धन की पेटी
उसने खोल दिया ताला
देख रे भाई तेरी ख़ातिर
मैंने गूँथ रखी माला।
भले न देखे भाई मुझको
मारे झाडू या कि लात,
जमके द्वारे चढ़ाके कुंडी,
तिलक किया भाई के माथ।