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तीन कवितायेँ / ज्योत्स्ना मिश्रा

1.

मैंने कभी तुम्हें बताया नहीं
कि कभी-कभी सो जाती हूँ
तुम्हारी आँखों की कहानियाँ पढते-पढते
तो सुबह लगता है कि सपने में
नदी देखी थी
चेहरा छुओ तो नम मिलता है।
मैनें कभी तुम्हें बताया नहीं
कि कभी-कभी पीती हूँ
तुम्हारे एक टूटे से खयाल को
सिगरेट की तरह।
कलेजे में भर लेती हूँ
आखिरी कसैले कश तक
और साँसे रोक लेती हूँ
तुम्हें रोकने की कोशिश में
मैंने कभी तुम्हें बताया नहीं
कि कभी-कभी मैं सोचती हूँ
तुम गली के मोड़ के
अमलतास से झड़े
फूलों का गुच्छा हो।
और लहूलुहान कर लेतीं हूँ,
उँगलियाँ सड़क की रगड़ से,
तुम्हें उठाने की कोशिश में।
मैंने तुम्हें कभी बताया नहीं
कि कभी-कभी मुझे लगता है
कि मैं दिन रात आठों प्रहर
युद्ध में हूँ
अपनी उखड़ती सांसों से
अपनी आँखों के नमकीन पानी से,
अपने होठों के कोनों पर रुकी
सहमी मुस्कुराहट से,
अपनी नींदों से
सुबहों से, शामों से
खुद से!
और
तुम से!

2.

तुम से!
हाँ कहा था, तुमसे चाँद लाने को
जब कहा था, तब नहीं सोचा था
कि वह हँसिया नुमा चीज़
इस कदर मेरे कलेजे के बीचोंबीच आकर धँस जायेगी
कि मेरे आकाश की पूरी मिट्टी उधेड़ कर भी
मैं उसकी जड़े न उखाड़ पाऊँगीं
हाँ माँगे थे बादल तुमसे
ये सोच कर कि जब बारिशें मिलेंगीं
तो मैं उन्हें संदूक में नहीं भरूंगीं
चुटकी चुटकी बाँट दूंगीं हर प्यास को
पर जो बादल तुमने दिये
इक उम्र के बदले
वो सूखे बंवडरों के सिवा
कुछ न ला सके
और मैं खड़ी रही, हवाओं पर हथेलियाँ पसारे
कगार पर न धँसी, न बही
वहीं की वहीं
किश्तियाँ कमजोर निकलीं
लौट गयीं
तुम्हारी, तुम्हारी तरफ
मेरी, मेरी तरफ
अब तुम वहीं उस तरफ
मैं यहीं इस तरफ
तो अपना ये चाँद भी लौटा लो न!
बहुत दुखता है

3.

दुखता है
तुम्हारा यूँ होना
ऐसा होना
जैसा कभी नहीं चाहा
मैंने तुम्हें चाहना कब चाहा?
दुखता है बिना चाहे तुम्हें चाहना!
तुमने सारे मौसम अपनी तरफ रोक लिये।
मैं अपने परती पड़े बंजर सपनों का क्या करूँ?
उग आई है खर पतवार
और नोकदार कैक्टस मेरे मैदानों में
मुझे यहाँ एक झील बनानी थी
सुदूर पूरब से आते घुमंतू पंक्षियों को बसाना था
पर हवायें तुमने छिपा लीं
और अब बिना कफन
यूँ पड़े रहना है
जैसे पड़ा होता है सुबह होने पर
कोई फीका सितारा
जमीन पर गिरकर
चुभता है अपना आप
बिना मरजी
ऐसा हो जाना, जैसा होना कभी नहीं चाहा!