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तीन चीड़ के पेड़ / अन्द्रेय वज़निसेंस्की / श्रीकान्त वर्मा

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अपने में निर्वासित
मैं हूँ मिख़ायलोवस्कए
एक-दूसरे से गुँथ-गुँथ कर चमक रहे हैं मेरे तीन चीड़ के पेड़

मेरे चेहरे के धुँधले दर्पण में साम्भर और लता कुँजों का
            होते जाना ग़ुम -- सन्ध्या का झुटपुटा

नदी और मैं, हम दोनों हैं सृष्टि,
हम से बाहर और कहीं से आ

सुलग रहे हैं तीन लाल सूरज,
तीन चीड़ के पेड़ काँच से तड़क रहे हैं
तीन मात्रोश्काएँ हो जैसे
या कि तीन स्त्रियाँ दमकती हुईं एक के अन्दर बैठी एक

वह जो मुझे प्यार करती, खिलखिला रही है
उसके अन्दर क़ैद दूसरी चिड़िया-सी फड़फड़ा रही है

अँगारे-सी सुर्ख़ तीसरी
क्रुद्ध बीच में रुँधी हुई है

मुझे नहीं यह कभी करेगी माफ़
यह मुझसे प्रतिहिंसा लेगी

मुझ पर अपनी दृष्टि गड़ाए चमक रहा है उसका चेहरा
जैसे किसी कुएँ के तल में एक अँगूठी

अँग्रेज़ी से अनुवाद : श्रीकांत वर्मा