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तीन पद / यश मालवीय

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1

ऊधो, नहीं सिराती रैन
बाँट रही है कठिन ज़िन्दगी सबको ज़हर-कुनैन
राजा जी की खातिर परजा, मुर्गी-अण्डा-पैन
सिर्फ़ अन्धेरा ही उलीचते काजल वाले नैन
लाठी पड़े अन्नदाता को, समय बड़ा बेचैन
कोविड का उपदेश बघारें, बड़े-बड़े शोमैन
पटरी बदल रही है गाड़ी, उमर खींचती चेन
ख़ून पियें मोहन-गिरधारी, अब्दुल्ला-हसनैन
देश बाँटने पर आमादा, इसके-उसके फ़ैन
हाँफ रहा जानवर सरीखा, सिर पीटे सुख-चैन
ऊधो नहीं सिराती रेन ।

2

प्रभु जी, तुम जीते हम हारे
हैलोजन वाली आँखों में चमक रहे अन्धियारे
चीख रहे हैं पंचम स्वर में घर आँगन गलियारे
चौराहे पर मरी भैंस की कोई खाल उतारे
आगज़नी में आगे-आगे हैं आँखों के तारे
पत्ती चबा रहे मिमियाते बकरी से उजियारे
अट्टहास करते रातों में ऊँचे महल-अटारे
चुरा रहे काजल आँखों का बादल कारे-कारे
उनके रंग ढंग मत पूछो, जब से श्याम सिधारे
पाँचों उँगली घी में, पूरे कुनबे के पौबारे
जनता का ही ख़ून बिखेरें, ख़ुशियों के फव्वारे
हैं शासनादेश फिरते ज्यों कुत्ते मारे-मारे
फ़सल काटकर खेतों-खेतों बोते हैं अंगारे
कठिन व्यवस्था गन्ने जैसा हमको पेरे-गारे
माघ-पूस में घूम रहे हैं, नंगे और उघारे
अपनी मौत मर रहे सपने, पतित पावनी तारे
प्रभु जी, तुम जीते हम हारे।

3

क्या कपड़े, क्या चप्पल, साधो !
दाना ही जब नहीं पेट में, क्या आने वाला कल, साधो !
सावन के अंधे क्या जानें, क्या सोना, क्या पीतल, साधो !
बिस्तर गोल,गोल धरती का, खाट नहीं, है खटमल, साधो !
तेज़ हवा बून्दा-बान्दी में, बिन दावत की पत्तल, साधो !
टूटी हुई बाँह वाले भी, दिखा रहे हैं भुजबल, साधो !
खेती वाला करे ख़ुदकुशी, कान्धे पर रक्खे हल, साधो !
पुरखे देहरी पर दम तोड़ें और पुज रहा पीपल, साधो !
वक़्त कि ठहरे पानी जैसा, मन ही में है हलचल, साधो !
कौन रूप का करे निहोरा, बिना आँख का काजल, साधो !
क्या कपड़े, क्या चप्पल, साधो !