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तीन मनुष्य / मोहन राणा
Kavita Kosh से
वे नहीं देखते बुरा
वे नहीं सुनते बुरा
वे नहीं कहते बुरा
वे गाँधी जी के तीन बन्दर नहीं थे,
तीन मनुष्य
तीन मनुष्य बहुत अकेले
अपने ही अवकाश में
बाजुओं को फैला
बीच दोपहरी में आँखों को बंद किए
यहाँ बहुत अँधेरा है
तुम कहाँ हो
कहाँ हो तुम
हाथ टटोलते
अन्य हाथों को
यहाँ बहुत अँधेरा है
तलघर में बैठे
वे चमकती धूप को पुकारते
खोयी हुई हवा को बुलाते
प्रेम का खुशी से क्या संबंध वे पूछते
अतीत के उत्खनन में
पर हर चीज़ पर धूल है
पीड़ा भी धूल है
दर्शक ही तो हूँ मैं इस नाटक में,
तीन मनुषय खोद रहे हैं ट्यूबवैल अपने अतीत में
उस गहराई तक जिसमें प्रदूषण न हो
जो पानी न हो
जो उन्हें अमर कर दे
पर खत्म हो जाता है नाटक इससे पहले