तीन / डायरी के जन्मदिन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
एक जीवन
है किरण का सिन्धु-कर्षण,
एक जीवन
है धुआँ की रेख का विस्तार......!
स्वप्नवर्ती गीत में या
मथी-सी नीहारिका में या
असह्य सुगन्ध के अभिशाप से
मुरछी, झुकी चम्पा-कली की
पीतिमा में......क्या भरा?
उफ!
समय का दर्द
कितने प्रश्न-चिह्नों में बँटा है!
देख लो -
वैदूर्य मणि कोई जड़ी है
मृत्तिका के पात्र में जिसके लिए,-
वह अनागत......सदा प्रस्तुत है;
नहीं खुलता यों कभी वह
अकिंचनता का मुखौटा खोल!
फिर भी जानता है निखिल सागर,
जानता है,- वीचि, उर्मि, तरंग में,
अनथके ज्वारों में
सदा पद-चिन्ह उतराते रहेंगे;
अंत-हीन, अमेय नीलाकाश भी
पहचानता है,-निज विकुंचन में,-
अथिर होंगे न पर्वत शिथिल
छाती पीटने से;
-इंद्र हो या वरुण,-
सारे पर्वतों के पंख लौटा दे,
फिर भी वे न डोलेंगे,- न बोलेंगे,......
एक जीवन
है तिमिर की धड़कनों में गूँजता स्वीकार!
[१९६५]