भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तीन / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन आया है गिर-गिर कर उठ जाने को
यौवन आया पत्थर को मोम बनाने को
जीवन के गायक गिरने से मत घबराना
यौवन के गायक गिरने से मत डर जाना

जीवन गिरने से गया नहीं,
उठने का नव उत्साह लिए आया है
गिरने वालों की आँखो में-
फिर एक नया आकाश लिए आया है

गिरकर त्तक्षण उठ जाना ही जीवन है
और पड़ा रह जाना गिर कर भी एक मरण है
सोंचती नहीं धारा आगे चट्टान कड़ी
हो टूक-टूक आगे बढ़ती ही जाती है
गिरकर चट्टानों के नीचे, ऊपर चढ़ती ही जाती है

यौवन आया, काँटों में राह बनाने को
जीवन आया काँटों में फूल खिलाने को
मन के साधक गलती कर मत पछताना
यौवन के साधक! बाधा से मत डर जाना

अनपढ़ पत्थर जब ठोकर खा इस मन्दिर का भगवान बना
जब कठिन लौह पीटे जाने पर देखो तीर कमान बना
तब क्या अनपढ़ इस दुनिया में सचमुच अनपढ़ रह जायेगा!

जी नहीं! कह रहा धरती पर सबसे आगे बढ़ जाएगा
यौवन आया है, दुख का बीज मिटाने को