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तीरगी में रोशनी का हौसला बढ़ता रहा / विनय मिश्र

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तीरगी में रोशनी का हौसला बढ़ता रहा
आँधियों में भी दिया उम्मीद का जलता रहा

गुल को काँटे ख़ार को गुल औ बियाबाँ को बहार
कैसे-कैसे गुल खिलाकर रंग वो भरता रहा

एक कश लेकर महज सिगरेट तुमने फैंक दी
और मैं ख़ामोश होकर रात भर जलता रहा

बद्दुआएँ मौसमों की बो गईं चिनगारियाँ
बस्तियों से आसमाँ तक जो धुँआ उठता रहा

मुश्किलों को छेड़ते ही बज गए ग़म के सितार
इंतिख़ाबी महफ़िलों का सिलसिला चलता रहा

मुस्कराकर पौंछ लूँ आँसू बताओ किसलिए
जबकि सदियों से बगावत में लहू बहता रहा

बात इतनी ही नहीं तुम तक पहुँचने के लिए
कुछ तक़ाज़ा था जो कस्दन मैं ग़ज़ल कहता रहा