भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब / वली 'उज़लत'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब
जिस तरह हो जा सबा से काकुल-ए-मुश्कीं ख़राब

जूँ नसीम-ए-सुब्ह ग़ुंचे गुल के सब बर्बाद दे
सर्द-महरी से बुतों की हैं दिल-ए-रंगीं ख़राब

बे-दिमाग़ी मत कर ऐ ज़ालिम के जूँ मौज ओ हबाब
दिल मेरा कर दे है पल में अब्रू-ए-पुर-चीं ख़राब

जूँ जले है शम्मा का मुश्त ज़र और तस्बीह अश्क
जिस तरह सरकश का है दुनिया ख़राब और दीं ख़राब

था बना ‘उज़लत’ वो फ़ौलाद-ए-दिल-ए-परवेज़ से
तब तो तीशे ने किया यूँ ख़ाना-ए-शीरीं ख़राब